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एक रिश्ता ऐसा भी...

 इक बेनाम रिश्ता वो  करने लगा था बेचैन मुझे जो, बया न हो सके जो  था ऐसा एक इश्क वो। जाने कहा खो गया वो  जाने कहा गुम गया वो, अपना बनाया था मैंने जिसे  शायद इन फिजाओं में कहीं गुम गया वो । न तो मेरे दिन ढलते  और न ही  मेरी रातें , एक तेरे खयालों में नहीं है नींद इन आंखों में। अब तो बस बिना किसी मंजिल के खोजना है उन राहों को, खत्म ही न हो चलकर जिनपे  तेरे मेरे बीच का अनंत प्रेम वो।

तू मैं और ये वादियां ...



वो संध्या सुंदरी भी कितनी ख़ास थी,

वो लिपटे हुए जब मेरे पास थी...


उस वक्त पर तेरा मेरे आलिंगन में होना,

और अनायास ही मेरे होठों का तेरे गालों को चूमना...


फिर तेरा यूं शर्मा जाना,

और कही उस एक पल में हमारे प्यार का इज़हार करना...


फिर क्या था;

बस यू ही एक दूसरे की बाहों में लिपटे रहना था...


और उसी बीच कही,हमारी इश्कबाजी भी तो थी...

लेकिन अचानक से उस संध्या सुंदरी का ढल जाना,

और फिर दो इश्कबाजो का एक दूसरे से बिछड़ जाना।


काश,उस एक पल को मैं फिर से सिर्फ़ महसूस कर पाता,

जहा तेरे और मेरे बीच की ये दूरियां ,

सब छोड़ बस हम एक दूसरे के हो जाते...

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